शुक्रवार, 8 मार्च 2013

आधार कार्ड निराधार कवायद



दिशाहीनता जब हद से गुजर जाए, तो उसे मूर्खता ही कहा जाता है. यूआईडी यानी आधार कार्ड के मामले में यूपीए सरकार ने दिशाहीनता की सारी सीमाएं अब लांघ दी हैं. आधार कार्ड पर हज़ारों करोड़ रुपये सरकार ने ख़र्च कर दिए. कांग्रेस पार्टी ने डायरेक्ट कैश ट्रांसफर का स्कीम इस कार्ड से जोड़ने का ऐलान कर दिया. कई झूठे वायदे कर लोगों को गुमराह करने में भी पीछे नहीं रही सरकार. देश के करोड़ों लोगों ने अपनी आखों की पुतली के अलावा और न जाने क्या-क्या जमा करा दिया और कैबिनेट मंत्रियों को यह भी पता नहीं है कि आधार स़िर्फ एक नंबर है या यह किसी कार्ड का नाम है. अब सवाल यह है कि वर्ष 2009 से यूआईडी कार्ड पर काम चल रहा है और अब इतने दिनों बाद देश के कई महान मंत्री यह कहें कि उन्हें यूआईडी या आधार के बारे में सही जानकारी नहीं है, तो ऐसी कैबिनेट को कौन सा ईनाम दिया जाए. ऐसी सरकार को क्या संज्ञा दी जाए. इसके अलावा यूआईडी को लेकर एक बिल संसद में लंबित है. अगर यह बिल पास हो गया, तो यूआईडीएआई को वैधता मिल जाएगी, लेकिन संसदीय समिति ने इस बिल को नकार दिया है. यह पता नहीं है कि यह बिल पास हो पाएगा या नहीं. यह भी पता नहीं है कि जब तक यह बिल पास हो, तब तक यूपीए की सरकार रहेगी या नहीं. कर्नाटक हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज यूआईडी की कमियां और इसके ग़ैरक़ानूनी पहलू को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुके हैं. इस केस की सुनवाई स्वयं अल्तमस कबीर कर रहे हैं. चौथी दुनिया पिछले तीन साल से यूआईडी या आधार कार्ड के ख़तरों से अपने पाठकों को अवगत कराता रहा है. आज यह स्कीम इस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां यूआईडी या आधार कार्ड के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग गया है और दूसरी तरफ यूपीए सरकार है, जो क़ानूनों को ताक पर रखने की ज़िद पर अड़ी है.
पिछले दिनों हुए कैबिनेट मीटिंग में यह एक बहस का मुद्दा बन गया कि यह आधार कार्ड है या कोई नंबर. इस कैबिनेट मीटिंग में कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, समाज कल्याण मंत्री कुमारी शैलजा, हैवी इंडस्ट्री मंत्री प्रफुल्ल पटेल और रेलमंत्री पवन बंसल ने यूआईडी पर सवाल उठाए. हैरानी की बात यह है कि यूआईडी पर उठे सवालों को सुलझाने के लिए इस बैठक में एक ग्रुप ऑफ मिनिस्टर का गठन किया गया, जो आधार से जुड़े सवालों पर जबाव तैयार करेगी. अब सवाल यह है कि यह ग्रुप ऑफ मिनिस्टर क्या करेगी, क्योंकि देश में आधे लोगों का कार्ड बन गया है, कई लोग आधार कार्ड लेकर घूम रहे हैं. इतना ही नहीं, इसमें दूसरा कंफ्यूजन भी है. नेशनल पॉपुलेशन रजिस्ट्रार भी एक दूसरा कार्ड धड़ल्ले से बना रही है. यह एनपीआर कार्ड और आधार कार्ड में क्या फ़़र्क है, यह किसी को पता नहीं है और न ही कोई बता रहा है. इसके बावजूद सरकार लगातार यह अफ़वाह फैला रही है कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम को आधार कार्ड से जोड़ा जाएगा. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब कैबिनेट मिनिस्टर तक को इस स्कीम के बारे में पता नहीं है, तो यह सरकार देश की जनता को क्या बता पाएगी. इस बीच योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया यूआईडी के बचाव में कूदे. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया कि आधार कोई कार्ड नहीं, बल्कि एक नंबर है, लेकिन यूआईडी के एक प्रचार को हम आपके सामने पेश कर रहे हैं, जिसमें साफ़- साफ़ यह लिखा है कि आधार एक कार्ड है. इस प्रचार में यह लिखा है कि मेरे पास आधार कार्ड है. इसके अलावा इसी प्रचार में हर व्यक्ति के हाथ में एक कार्ड है. हैरानी होती है कि देश चलाने वालों ने एक स्कीम को लेकर पूरे देश में तमाशा खड़ा कर दिया है और ख़ुद को हंसी का पात्र बना दिया. हालांकि सवाल यह है कि यूआईडी को लेकर, अब तक सरकार सारे कामकाज को क्यों गोपनीय रखा है. इस स्कीम में आख़िर ऐसी क्या बात है, जिसकी वजह से सरकार सारे नियम क़ानून को ताक पर रख दिया है. सरकार अजीबो-ग़रीब तरी़के से काम करती है. केंद्रीय सरकार ने यूआईडी/आधार नंबर को प्रॉविडेंट फंड के ऑपरेशन के लिए अनिवार्य बना दिया है, जबकि अब तक इसके लिए कोई क़ानूनी आदेश जारी नहीं किया गया है. मतलब यह कि इस कार्ड को प्रॉविडेंट फंड के लिए ग़ैरक़ानूनी तरी़के से अनिवार्य बना दिया गया है. हैरानी की बात यह है कि इसकी वेबसाइट पर आज भी यह लिखा हुआ है कि यह कार्ड स्वेच्छी है, यानी वॉलेनटरी है. इसका मतलब तो यही हुआ कि यूआईडी को लेकर सरकार कोई क़ानून नहीं बनाएगी, लेकिन अपने अलग- अलग विभागों में इसे अनिवार्य कर देगी. यहां ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि यूआईडी तो सिर्फ देश के आधे हिस्से में लागू किया गया है और बाकी हिस्से में एनपीआर कार्ड बनेगा, तो फिर ऐसी स्थिति में आधार कार्ड को प्रॉविडेंट फंड जैसे स्कीम में अनिवार्य कैसे किया जा सकता है. और अगर सरकार इसे पीएफ में अनिवार्य करना चाहती है, तो जिन राज्यों में आधार कार्ड नहीं बनेगा, वहां किस कार्ड को वैध माना जाएगा. सरकार ने यूआईडी के नाम पर ऐसा चक्रव्यूह बना दिया है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब देश के सारे मज़दूर यूआईडी कार्ड पर ही निर्भर हो जाएंगे. यूआईडी/आधार कार्ड के फार्म के कॉलम नंबर ९ में एक अजीबो-ग़रीब बात लिखी हुई है. इसे एक शपथ के रूप में लिखा गया है. कॉलम 9 में लिखा है कि यूडीआईएआई को उनके द्वारा दी गई सारी जानकारियों को किसी कल्याणकारी सेवा में लगी एजेंसियों को देने में उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं है. इस कॉलम के आगे हां और ना के बॉक्स बने हैं. दरअसल, इस हां और ना का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि फॉर्म भरने वाले लोग हां पर टिक लगा देते हैं. बंगलुरु में यूआईडीएआई के डिप्टी चेयरमैन ने यह घोषणा की, यूडीआईएआई पुलिस जांच में लोगों की जानकारी मुहैया कराएगा. सवाल यह है कि क्या पुलिस एक कल्याणकारी सेवा करने वाली एजेंसी है. समस्या यह है कि इस फॉर्म पर कल्याणकारी सेवा में लगी एजेंसियों के नाम ही नहीं हैं. इसका मतलब यह है कि यूआईडीएआई जिसे भी कल्याणकारी सेवा में लगी एजेंसियां मान लेगी, उसके साथ लोगों की जानकारियां शेयर कर सकती हैं. यानी एक बार लोगों ने अपनी जानकारियां दे दी, तो उसके बाद उन जानकारियों के इस्तेमाल पर लोगों का कोई अधिकार नहीं रह जाएगा. दरअसल, इन जानकारियों को सरकार सेंट्रलाइज्ड आईडेंटिटी डाटा रजिस्टर (सीआईडीआर) और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्ट्रार के लिए जमा इसलिए कर रही है, ताकि पूरे देश के लोगों का एक डाटा बेस तैयार हो सके, लेकिन इसका एक ख़तरनाक पहलू भी है. इन जानकारियों को बायोमैट्रिक टेक्नोलॉजी कंपनियों को दे दिया जाएगा, क्योंकि यूआईडीएआई ने इन जानकारियों को ऑपरेट करने का ठेका निजी कंपनियों को दे दिया है. इन कंपनियों में सत्यम कम्प्यूटर सर्विसेज (सेगेम मोर्फो), एल 1 आईडेंटिटी सॉल्युशन, एसेंचर आदि हैं. जैसा कि चौथी दुनिया में पहले भी बताया जा चुका है कि इन कंपनियों के तार अमेरिका की ख़ुफिया एजेंसी के अधिकारियों से जुड़ी हुई है, इसलिए यह मामला और भी गंभीर हो जाता है. सरकार न तो संसद में और न ही मीडिया में यह साफ़ कर पाई है कि ऐसी क्या मजबूरी है कि देश के लोगों की जानकारियां ऐसी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है, जिनका बैकग्राउंड न स़िर्फ संदिग्ध हैं, बल्कि ख़तरनाक भी है. अब यह समझ में नहीं आता है कि मनमोहन सिंह की सरकार यूआईडीएआई और उसके चेयरमैन नंदन नेलकानी को लेकर इतनी गोपनीयता क्यों बरत रही है. सारे क़ायदे क़ानून को ताक पर रखकर सरकार उन्हें इतना महत्व क्यों दे रही है. इसका क्या राज है. 2 जुलाई, 2010 को यूआईडीएआई की तरफ से बयान जारी होता है कि कैबिनेट सेक्रेटेरिएट में चेयरमैन की नियुक्ति का फैसला ले लिया गया है. योजना आयोग 2 जुलाई, 2009 के नोटिफिकेशन में यह बताया गया कि सक्षम प्राधिकारी यानी कॉम्पीटेंट अथॉरिटी के द्वारा यह पारित किया गया है कि नंदन नेलकानी, इंफोसिस के को-चेयरमैन, को यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया का अगले पांच साल तक चेयरमैन रहेंगे. यहां दो चूक हुई. उन्हें यूआईडी का चेयरमैन उस वक्त बनाया गया, जब वह इंफोसिस के को-चेयरमैन की कुर्सी पर विराजमान थे. मतलब यह कि कुछ समय के लिए वे यूआईडीएआई के साथ-साथ इंफोसिस के को-चेयरमैन बने रहे. अगर कोई दूसरा होता, तो वह दोनों जगहों से जाता. ग़ौरतलब है कि सोनिया गांधी को ऐसी ही ग़लती की वजह से त्यागपत्र देना पड़ा था, लेकिन नेलकानी का बाल भी बांका नहीं हुआ. दूसरी ग़लती यह कि नंदन नेलकानी ने कोई गोपनीयता की शपथ भी नहीं ली, जैसा कि हर कैबिनेट मंत्री को लेना होता है, लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार ने उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया. सरकार ने देश के सभी नागरिकों की गुप्त जानकारियों को उनके हाथ सौंप दिया. अब तो मनमोहन सिंह ही बता सकते हैं कि नेलकानी पर इतना भरोसा करने की वजह क्या है. वैसे यह भी जानना ज़रूरी है कि भारत में किसी भी व्यक्ति के बायोमैट्रिक को कलेक्ट करना क़ानूनी रूप से ग़लत है, लेकिन सरकार ने नंदन नेलकानी साहब के लिए खुली छूट दे रखी है. नंदन नेलकानी और यूपीए सरकार ने यूआईडी को लेकर जितने भी दावे किए, वे सब झूठे साबित हुए. नंदन नेलकानी का सबसे बड़ा दावा यह था कि इसका डुप्लीकेट नहीं बन सकता. कहने का मतलब कि यह कार्ड इस तरह के तकनीकी से युक्त है, जो इसे फुलप्रूफ बनाता है, लेकिन यह दावा खोखला साबित हुआ. अब इस तरह की शिकायतें आने लगी हैं, जिससे यह पता चलता है कि यह न तो फुलप्रूफ है और इसका डुप्लीकेशन भी पूरी तरह संभव है. अब नंदन नेलकानी को यह भी जबाव देना चाहिए कि उन्होंने देश के सामने झूठे वायदे क्यों किए और लोगों को गुमराह क्यों किया. वैसे शर्मसार होकर यूआईडीएआई ने इन गड़बड़ियों पर जांच के आदेश दे दिए हैं. अब तक 300 ऑपरेटरों को स़िर्फ महाराष्ट्र में ब्लैकलिस्ट किया जा चुका है, जिनमें 22 ऑपरेटर मुंबई में स्थित हैं. दिसंबर 2012 में यूआईडीएआई क़रीब 3.84 लाख आधार नंबर कैंसिल कर चुकी है, क्योंकि वे नंबर फर्जी थे. नंदन नेलकानी के बड़े-बड़े वायदों की सच्चाई यह है कि अभी आधार कार्ड का काम सही ढंग से शुरू भी नहीं हो पाया और गड़बड़ियां शुरू हो गई हैं. यूपीए सरकार वही सरकार है, जिसने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जब अन्ना हजारे ने जनलोकपाल के लिए अनशन किया था, तो चीख-चीखकर कहा था कि क़ानून सड़क पर नहीं बनते. यह काम संसद का है. संसद में क़ानून बनाने की एक प्रक्रिया है, लेकिन जब बात यूआईडी यानी आधार कार्ड की आई, तो सरकार ने सारे नियम क़ानून को ताक पर ऱख दिया. यूआईडी के लिए क़ानून संसद में तो नहीं बनी, लेकिन लगता है यूआईडी के सारे नियम किसी ड्राइंग रूम में दोस्तों के बीच बनाया गया है. देश में धड़ल्ले से आधार कार्ड बनाए ज़रूर गए, लेकिन सरकार ने इस बात की ज़रूरत भी नहीं समझी कि इस बाबत कोई ठोस क़ानून बन सके. हालांकि क़ानून बनाने की प्रक्रिया भी शुरू हुई और यह मामला संसदीय समिति के पास भी गया, लेकिन आज स्थिति यह है कि बिना संसद की सहमति के इस स्कीम को देश के ऊपर थोप दिया गया. आधार कार्ड का एक और पहलू है. संसदीय समिति ने इसे निरस्त कर आधारहीन घोषित कर दिया है. संसदीय समिति ने सिर्फ इसकी वैधता पर ही सवाल नहीं उठाया, बल्कि संसदीय समिति ने इस प्रोजेक्ट को ही रिजेक्ट कर दिया. संसदीय समिति ने पहले इसके जानकारों और विशेषज्ञों से पूछताछ की और उसके बाद यूआईडीएआई के अधिकारियों को पूरा समय दिया कि उनके सवालों का सही तरह से जवाब दें, लेकिन यूआईडीएआई के अधिकारी इन सवालों का जवाब नहीं दे सके. संसदीय समिति ने उन्हीं सवालों को दोहराया, जिन्हें हम चौथी दुनिया में पिछले तीन वर्षों से लगातार छापते आए हैं. 31 सदस्यों वाली संसदीय समिति के 28 लोगों ने यूआईडी प्रोजेक्ट को सिरे से नकार दिया और जो तीन बचे थे, उनमें से एक ने कहा कि वह संसदीय समिति में बिल्कुल नए हैं, इसलिए उन्हें यूआईडी के बारे में पूरी जानकारी नहीं है. एक वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद थे, जिन्होंने बिना कोई कारण बताए संसदीय समिति के फैसले के विपरीत अपना रुख रखा. संसदीय समिति ने सात मुख्य बिंदुओं पर यूआईडी को निरस्त किया, जिनमें राष्ट्रीय सुरक्षा, जल्दीबाज़ी, दिशाहीनता, ग़ैर भरोसेमंद टेक्नोलॉजी, प्राईवेसी का हक़, व्यावहारिकता, अध्ययन की कमी और सरकार के अलग-अलग विभागों में तालमेल की कमी शामिल है. ससंदीय समिति का कहना है कि यूआईडी स्कीम को बिना सोचे समझे ही बना दिया गया है. इस स्कीम का उद्देश्य क्या है यह भी साफ नहीं है और अब तक दिशाहीन तरी़के से इसे लागू किया गया है, जो आने वाले दिनों में इस स्कीम को निजी कंपनियों पर आश्रित कर सकता है. संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस प्रोजेक्ट को दिशाहीन बताकर और इस बिल को नामंजूर करते हुए सरकार से अपील की है कि वह इस स्कीम पर पुनर्विचार करे. सरकार को यह बताना चाहिए कि क्या उन्होंने इस कार्ड को लेकर कोई फिजिबिलिटी टेस्ट किया है. अगर नहीं किया है, तो फिर पूरे देश पर क्यों थोप दिया. क्या दुनिया के किसी देश में इस तरह के कार्ड का इस्तेमाल हो रहा है. क्या इस तरह की टेक्नोलॉजी दुनिया के किसी भी देश में सफल हो पाया है. क्या दुनिया के किसी भी देश में सरकारी योजनाओं को इस तरह के नंबर से जोड़ा गया है. अगर नहीं, तो फिर भारत सरकार यह अक्लमंदी का काम क्यों कर रही है, जबकि इंग्लैंड में इस योजना में आधा ख़र्च करने के बाद इसे अंततः रोक दिया गया. सच्चाई यह है कि यह कोई नहीं जानता कि यह कार्ड कैसे काम करता है. यह टेक्नोलॉजी किस तरह से ऑपरेट होती है. दुनिया भर के एक्सपर्ट्स का मानना है कि बायोमैट्रिक से पहचान पत्र बनाने की कोई सटीकटेक्नोलॉजी नहीं है. दरअसल, यह पूरा प्रोजेक्ट विदेशी कंपनियां अपनी टेक्नॉलाजी को भारत में टेस्ट कर रहे हैं और हमारी महान सरकार ने पूरे देश की जनता को बलि का बकरा बना दिया है. अब इस सवाल का जवाब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ही दे सकते हैं कि सरकार ने राष्ट्रीय ख़जाने से हज़ारों करोड़ रुपये बिना बिल पास कराए क्यों ख़र्च किया. यह मामला गृह मंत्रालय का है, लेकिन जवाब प्रधानमंत्री को देना चाहिए, क्योंकि यूआईडी के सर्वेसर्वा नंदन नेलकानी मनमोहन सिंह के ख़ास मित्र हैं. यह कैसा प्रजातंत्र है और यह सरकार चलाने का कौन सा तरीक़ा है, जहां किसी स्कीम का बिल संसद में लटका पड़ा हो, जिस बिल पर संसदीय समिति की ऐसी राय हो और जिस बिल पर संसद में भीषण विरोध हो रहा हो, लेकिन सरकार इन सब को नज़रअंदाज़ कर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च कर देती है. सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस प्रोजेक्ट पर कितना पैसा ख़र्च होगा, यह बात अब तक गुप्त रखा गया है. ऐसी स्थिति में हमें यह मान लेना चाहिए कि हर साल इस प्रोजेक्ट में हज़ारों करोड़ रुपये बर्बाद कर दिए जाएंगे, वह भी बिना किसी क़ानून के. यहां सवाल यह भी उठता है कि अगर संसद में यूआईडीएआई बिल पास न हुआ और इस योजना को बंद करना पड़ा, तब क्या होगा. सुप्रीम कोर्ट ने अगर इस मामले में प्रतिकूल फैसला सुना दिया, तो क्या होगा. योजना तो बंद हो ही जाएगी, लेकिन ग़रीब जनता का हज़ारों करोड़ रुपया, जो कि पानी की तरह बहा दिया गया है, उसे कौन लौटाएगा. क्या नंदन नेलकानी उसे वापस करेंगे या फिर उन्हें नियुक्त करने वाले मनमोहन सिंह इस ज़िम्मेदारी को उठाएंगे. यूआईडी कार्ड है या नंबर, इससे देश की जनता को कोई फ़़र्क नहीं पड़ता है, लेकिन सरकार को अगर लोगों का विश्वास जीतना है, तो इस पूरे प्रोजेक्ट की स्वतंत्र जांच कराकर सरकार को श्वेत पत्र पेश करना चाहिए, ताकि देश की जनता आधार कार्ड की हक़ीक़त जान सके.
यह कार्ड ख़तरनाक है : पार्ट-1
चौथी दुनिया ने अगस्त 2011 में ही बताया था कि कैसे यह यूआईडी कार्ड हमारे देश की सुरक्षा के लिए ख़तरनाक है. दरअसल, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) ने इसके लिए तीन कंपनियों को चुना- एसेंचर, महिंद्रा सत्यम-मोर्फो और एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन. एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन का उदाहरण लेते हैं. इस कंपनी के टॉप मैनेजमेंट में ऐसे लोग हैं, जिनका अमेरिकी खु़फिया एजेंसी सीआईए और दूसरे सैन्य संगठनों से रिश्ता रहा है. एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन अमेरिका की सबसे बड़ी डिफेंस कंपनियों में से है, जो 25 देशों में फेस डिटेक्शन, इलेक्ट्रॅानिक पासपोर्ट आदि जैसी चीजों को बेचती है. इस कंपनी के डायरेक्टरों के बारे में जानना ज़रूरी है. इसके सीईओ ने 2006 में कहा था कि उन्होंने सीआईए के जॉर्ज टेनेट को कंपनी बोर्ड में शामिल किया है. ग़ौरतलब है कि जॉर्ज टेनेट सीआईए के डायरेक्टर रह चुके हैं और उन्होंने ही इराक़ के ख़िलाफ़ झूठे सबूत इकट्ठा किए थे कि उसके पास महाविनाश के हथियार हैं. सवाल यह है कि सरकार इस तरह की कंपनियों को भारत के लोगों की सारी जानकारियां देकर क्या करना चाहती है? एक तो ये कंपनियां पैसा कमाएंगी, साथ ही पूरे तंत्र पर इनका क़ब्ज़ा भी होगा. इस कार्ड के बनने के बाद समस्त भारतवासियों की जानकारियों का क्या-क्या दुरुपयोग हो सकता है, यह सोचकर ही किसी के भी दिमाग़ की बत्ती गुल हो जाएगी.
यह कार्ड ख़तरनाक है : पार्ट- 2
नवंबर 2011 में भी चौथी दुनिया ने यूआईडी कार्ड से संबंधित एक कवर स्टोरी की थी और बताया था कि कैसे अगर यह कार्ड गलत हाथों में चला गया, तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. हमने बताया था कि अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में यूएस होलोकॉस्ट मेमोरियल म्यूजियम है. इस म्यूजियम में एक मशीन रखी है, जिसका नाम है होलेरिथ डी-11. इस मशीन को आईबीएम कंपनी ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले बनाया था. यह एक पहचान-पत्र की छंटाई करने वाली मशीन है, जिसका इस्तेमाल हिटलर ने 1933 में जनगणना करने में किया था. यही वह मशीन है, जिसके ज़रिए हिटलर ने यहूदियों की पहचान की थी. नाज़ियों को यहूदियों की लिस्ट आईबीएम कंपनी ने दी थी. यह कंपनी जर्मनी में जनगणना करने के काम में थी, जिसने न स़िर्फ जातिगत जनगणना और यहूदियों की गणना की, बल्कि उनकी पहचान भी कराई. आईबीएम और हिटलर के इस गठजोड़ ने इतिहास के सबसे खतरनाक जनसंहार को अंजाम दिया. भारत सरकार ने खास तौर पर जर्मनी और आम तौर पर यूरोप के अनुभवों को नज़रअंदाज़ करके इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी है, जबकि यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि निशानदेही के यही औजार बदले की भावना से किन्हीं खास धर्मों, जातियों, क्षेत्रों या आर्थिक रूप से असंतुष्ट तबकों के खिलाफ़ भी इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं. यह एक खतरनाक स्थिति है.पिछले दिनों हुए कैबिनेट मीटिंग में यह एक बहस का मुद्दा बन गया कि यह आधार कार्ड है या कोई नंबर. इस कैबिनेट मीटिंग में कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, समाज कल्याण मंत्री कुमारी शैलजा, हैवी इंडस्ट्री मंत्री प्रफुल्ल पटेल और रेलमंत्री पवन बंसल ने यूआईडी पर सवाल उठाए. हैरानी की बात यह है कि यूआईडी पर उठे सवालों को सुलझाने के लिए इस बैठक में एक ग्रुप ऑफ मिनिस्टर का गठन किया गया, जो आधार से जुड़े सवालों पर जबाव तैयार करेगी. अब सवाल यह है कि यह ग्रुप ऑफ मिनिस्टर क्या करेगी, क्योंकि देश में आधे लोगों का कार्ड बन गया है, कई लोग आधार कार्ड लेकर घूम रहे हैं. इतना ही नहीं, इसमें दूसरा कंफ्यूजन भी है. नेशनल पॉपुलेशन रजिस्ट्रार भी एक दूसरा कार्ड धड़ल्ले से बना रही है. यह एनपीआर कार्ड और आधार कार्ड में क्या फ़़र्क है, यह किसी को पता नहीं है और न ही कोई बता रहा है. इसके बावजूद सरकार लगातार यह अफ़वाह फैला रही है कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम को आधार कार्ड से जोड़ा जाएगा. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब कैबिनेट मिनिस्टर तक को इस स्कीम के बारे में पता नहीं है, तो यह सरकार देश की जनता को क्या बता पाएगी. इस बीच योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया यूआईडी के बचाव में कूदे. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया कि आधार कोई कार्ड नहीं, बल्कि एक नंबर है, लेकिन यूआईडी के एक प्रचार को हम आपके सामने पेश कर रहे हैं, जिसमें साफ़- साफ़ यह लिखा है कि आधार एक कार्ड है. इस प्रचार में यह लिखा है कि मेरे पास आधार कार्ड है. इसके अलावा इसी प्रचार में हर व्यक्ति के हाथ में एक कार्ड है. हैरानी होती है कि देश चलाने वालों ने एक स्कीम को लेकर पूरे देश में तमाशा खड़ा कर दिया है और ख़ुद को हंसी का पात्र बना दिया. हालांकि सवाल यह है कि यूआईडी को लेकर, अब तक सरकार सारे कामकाज को क्यों गोपनीय रखा है. इस स्कीम में आख़िर ऐसी क्या बात है, जिसकी वजह से सरकार सारे नियम क़ानून को ताक पर रख दिया है. सरकार अजीबो-ग़रीब तरी़के से काम करती है. केंद्रीय सरकार ने यूआईडी/आधार नंबर को प्रॉविडेंट फंड के ऑपरेशन के लिए अनिवार्य बना दिया है, जबकि अब तक इसके लिए कोई क़ानूनी आदेश जारी नहीं किया गया है. मतलब यह कि इस कार्ड को प्रॉविडेंट फंड के लिए ग़ैरक़ानूनी तरी़के से अनिवार्य बना दिया गया है. हैरानी की बात यह है कि इसकी वेबसाइट पर आज भी यह लिखा हुआ है कि यह कार्ड स्वेच्छी है, यानी वॉलेनटरी है. इसका मतलब तो यही हुआ कि यूआईडी को लेकर सरकार कोई क़ानून नहीं बनाएगी, लेकिन अपने अलग- अलग विभागों में इसे अनिवार्य कर देगी. यहां ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि यूआईडी तो सिर्फ देश के आधे हिस्से में लागू किया गया है और बाकी हिस्से में एनपीआर कार्ड बनेगा, तो फिर ऐसी स्थिति में आधार कार्ड को प्रॉविडेंट फंड जैसे स्कीम में अनिवार्य कैसे किया जा सकता है. और अगर सरकार इसे पीएफ में अनिवार्य करना चाहती है, तो जिन राज्यों में आधार कार्ड नहीं बनेगा, वहां किस कार्ड को वैध माना जाएगा. सरकार ने यूआईडी के नाम पर ऐसा चक्रव्यूह बना दिया है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब देश के सारे मज़दूर यूआईडी कार्ड पर ही निर्भर हो जाएंगे. यूआईडी/आधार कार्ड के फार्म के कॉलम नंबर ९ में एक अजीबो-ग़रीब बात लिखी हुई है. इसे एक शपथ के रूप में लिखा गया है. कॉलम 9 में लिखा है कि यूडीआईएआई को उनके द्वारा दी गई सारी जानकारियों को किसी कल्याणकारी सेवा में लगी एजेंसियों को देने में उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं है. इस कॉलम के आगे हां और ना के बॉक्स बने हैं. दरअसल, इस हां और ना का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि फॉर्म भरने वाले लोग हां पर टिक लगा देते हैं. बंगलुरु में यूआईडीएआई के डिप्टी चेयरमैन ने यह घोषणा की, यूडीआईएआई पुलिस जांच में लोगों की जानकारी मुहैया कराएगा. सवाल यह है कि क्या पुलिस एक कल्याणकारी सेवा करने वाली एजेंसी है. समस्या यह है कि इस फॉर्म पर कल्याणकारी सेवा में लगी एजेंसियों के नाम ही नहीं हैं. इसका मतलब यह है कि यूआईडीएआई जिसे भी कल्याणकारी सेवा में लगी एजेंसियां मान लेगी, उसके साथ लोगों की जानकारियां शेयर कर सकती हैं. यानी एक बार लोगों ने अपनी जानकारियां दे दी, तो उसके बाद उन जानकारियों के इस्तेमाल पर लोगों का कोई अधिकार नहीं रह जाएगा. दरअसल, इन जानकारियों को सरकार सेंट्रलाइज्ड आईडेंटिटी डाटा रजिस्टर (सीआईडीआर) और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्ट्रार के लिए जमा इसलिए कर रही है, ताकि पूरे देश के लोगों का एक डाटा बेस तैयार हो सके, लेकिन इसका एक ख़तरनाक पहलू भी है. इन जानकारियों को बायोमैट्रिक टेक्नोलॉजी कंपनियों को दे दिया जाएगा, क्योंकि यूआईडीएआई ने इन जानकारियों को ऑपरेट करने का ठेका निजी कंपनियों को दे दिया है. इन कंपनियों में सत्यम कम्प्यूटर सर्विसेज (सेगेम मोर्फो), एल 1 आईडेंटिटी सॉल्युशन, एसेंचर आदि हैं. जैसा कि चौथी दुनिया में पहले भी बताया जा चुका है कि इन कंपनियों के तार अमेरिका की ख़ुफिया एजेंसी के अधिकारियों से जुड़ी हुई है, इसलिए यह मामला और भी गंभीर हो जाता है. सरकार न तो संसद में और न ही मीडिया में यह साफ़ कर पाई है कि ऐसी क्या मजबूरी है कि देश के लोगों की जानकारियां ऐसी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है, जिनका बैकग्राउंड न स़िर्फ संदिग्ध हैं, बल्कि ख़तरनाक भी है. अब यह समझ में नहीं आता है कि मनमोहन सिंह की सरकार यूआईडीएआई और उसके चेयरमैन नंदन नेलकानी को लेकर इतनी गोपनीयता क्यों बरत रही है. सारे क़ायदे क़ानून को ताक पर रखकर सरकार उन्हें इतना महत्व क्यों दे रही है. इसका क्या राज है. 2 जुलाई, 2010 को यूआईडीएआई की तरफ से बयान जारी होता है कि कैबिनेट सेक्रेटेरिएट में चेयरमैन की नियुक्ति का फैसला ले लिया गया है. योजना आयोग 2 जुलाई, 2009 के नोटिफिकेशन में यह बताया गया कि सक्षम प्राधिकारी यानी कॉम्पीटेंट अथॉरिटी के द्वारा यह पारित किया गया है कि नंदन नेलकानी, इंफोसिस के को-चेयरमैन, को यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया का अगले पांच साल तक चेयरमैन रहेंगे. यहां दो चूक हुई. उन्हें यूआईडी का चेयरमैन उस वक्त बनाया गया, जब वह इंफोसिस के को-चेयरमैन की कुर्सी पर विराजमान थे. मतलब यह कि कुछ समय के लिए वे यूआईडीएआई के साथ-साथ इंफोसिस के को-चेयरमैन बने रहे. अगर कोई दूसरा होता, तो वह दोनों जगहों से जाता. ग़ौरतलब है कि सोनिया गांधी को ऐसी ही ग़लती की वजह से त्यागपत्र देना पड़ा था, लेकिन नेलकानी का बाल भी बांका नहीं हुआ. दूसरी ग़लती यह कि नंदन नेलकानी ने कोई गोपनीयता की शपथ भी नहीं ली, जैसा कि हर कैबिनेट मंत्री को लेना होता है, लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार ने उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया. सरकार ने देश के सभी नागरिकों की गुप्त जानकारियों को उनके हाथ सौंप दिया. अब तो मनमोहन सिंह ही बता सकते हैं कि नेलकानी पर इतना भरोसा करने की वजह क्या है. वैसे यह भी जानना ज़रूरी है कि भारत में किसी भी व्यक्ति के बायोमैट्रिक को कलेक्ट करना क़ानूनी रूप से ग़लत है, लेकिन सरकार ने नंदन नेलकानी साहब के लिए खुली छूट दे रखी है. नंदन नेलकानी और यूपीए सरकार ने यूआईडी को लेकर जितने भी दावे किए, वे सब झूठे साबित हुए. नंदन नेलकानी का सबसे बड़ा दावा यह था कि इसका डुप्लीकेट नहीं बन सकता. कहने का मतलब कि यह कार्ड इस तरह के तकनीकी से युक्त है, जो इसे फुलप्रूफ बनाता है, लेकिन यह दावा खोखला साबित हुआ. अब इस तरह की शिकायतें आने लगी हैं, जिससे यह पता चलता है कि यह न तो फुलप्रूफ है और इसका डुप्लीकेशन भी पूरी तरह संभव है. अब नंदन नेलकानी को यह भी जबाव देना चाहिए कि उन्होंने देश के सामने झूठे वायदे क्यों किए और लोगों को गुमराह क्यों किया. वैसे शर्मसार होकर यूआईडीएआई ने इन गड़बड़ियों पर जांच के आदेश दे दिए हैं. अब तक 300 ऑपरेटरों को स़िर्फ महाराष्ट्र में ब्लैकलिस्ट किया जा चुका है, जिनमें 22 ऑपरेटर मुंबई में स्थित हैं. दिसंबर 2012 में यूआईडीएआई क़रीब 3.84 लाख आधार नंबर कैंसिल कर चुकी है, क्योंकि वे नंबर फर्जी थे. नंदन नेलकानी के बड़े-बड़े वायदों की सच्चाई यह है कि अभी आधार कार्ड का काम सही ढंग से शुरू भी नहीं हो पाया और गड़बड़ियां शुरू हो गई हैं. यूपीए सरकार वही सरकार है, जिसने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जब अन्ना हजारे ने जनलोकपाल के लिए अनशन किया था, तो चीख-चीखकर कहा था कि क़ानून सड़क पर नहीं बनते. यह काम संसद का है. संसद में क़ानून बनाने की एक प्रक्रिया है, लेकिन जब बात यूआईडी यानी आधार कार्ड की आई, तो सरकार ने सारे नियम क़ानून को ताक पर ऱख दिया. यूआईडी के लिए क़ानून संसद में तो नहीं बनी, लेकिन लगता है यूआईडी के सारे नियम किसी ड्राइंग रूम में दोस्तों के बीच बनाया गया है. देश में धड़ल्ले से आधार कार्ड बनाए ज़रूर गए, लेकिन सरकार ने इस बात की ज़रूरत भी नहीं समझी कि इस बाबत कोई ठोस क़ानून बन सके. हालांकि क़ानून बनाने की प्रक्रिया भी शुरू हुई और यह मामला संसदीय समिति के पास भी गया, लेकिन आज स्थिति यह है कि बिना संसद की सहमति के इस स्कीम को देश के ऊपर थोप दिया गया. आधार कार्ड का एक और पहलू है. संसदीय समिति ने इसे निरस्त कर आधारहीन घोषित कर दिया है. संसदीय समिति ने सिर्फ इसकी वैधता पर ही सवाल नहीं उठाया, बल्कि संसदीय समिति ने इस प्रोजेक्ट को ही रिजेक्ट कर दिया. संसदीय समिति ने पहले इसके जानकारों और विशेषज्ञों से पूछताछ की और उसके बाद यूआईडीएआई के अधिकारियों को पूरा समय दिया कि उनके सवालों का सही तरह से जवाब दें, लेकिन यूआईडीएआई के अधिकारी इन सवालों का जवाब नहीं दे सके. संसदीय समिति ने उन्हीं सवालों को दोहराया, जिन्हें हम चौथी दुनिया में पिछले तीन वर्षों से लगातार छापते आए हैं. 31 सदस्यों वाली संसदीय समिति के 28 लोगों ने यूआईडी प्रोजेक्ट को सिरे से नकार दिया और जो तीन बचे थे, उनमें से एक ने कहा कि वह संसदीय समिति में बिल्कुल नए हैं, इसलिए उन्हें यूआईडी के बारे में पूरी जानकारी नहीं है. एक वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद थे, जिन्होंने बिना कोई कारण बताए संसदीय समिति के फैसले के विपरीत अपना रुख रखा. संसदीय समिति ने सात मुख्य बिंदुओं पर यूआईडी को निरस्त किया, जिनमें राष्ट्रीय सुरक्षा, जल्दीबाज़ी, दिशाहीनता, ग़ैर भरोसेमंद टेक्नोलॉजी, प्राईवेसी का हक़, व्यावहारिकता, अध्ययन की कमी और सरकार के अलग-अलग विभागों में तालमेल की कमी शामिल है. ससंदीय समिति का कहना है कि यूआईडी स्कीम को बिना सोचे समझे ही बना दिया गया है. इस स्कीम का उद्देश्य क्या है यह भी साफ नहीं है और अब तक दिशाहीन तरी़के से इसे लागू किया गया है, जो आने वाले दिनों में इस स्कीम को निजी कंपनियों पर आश्रित कर सकता है. संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस प्रोजेक्ट को दिशाहीन बताकर और इस बिल को नामंजूर करते हुए सरकार से अपील की है कि वह इस स्कीम पर पुनर्विचार करे. सरकार को यह बताना चाहिए कि क्या उन्होंने इस कार्ड को लेकर कोई फिजिबिलिटी टेस्ट किया है. अगर नहीं किया है, तो फिर पूरे देश पर क्यों थोप दिया. क्या दुनिया के किसी देश में इस तरह के कार्ड का इस्तेमाल हो रहा है. क्या इस तरह की टेक्नोलॉजी दुनिया के किसी भी देश में सफल हो पाया है. क्या दुनिया के किसी भी देश में सरकारी योजनाओं को इस तरह के नंबर से जोड़ा गया है. अगर नहीं, तो फिर भारत सरकार यह अक्लमंदी का काम क्यों कर रही है, जबकि इंग्लैंड में इस योजना में आधा ख़र्च करने के बाद इसे अंततः रोक दिया गया. सच्चाई यह है कि यह कोई नहीं जानता कि यह कार्ड कैसे काम करता है. यह टेक्नोलॉजी किस तरह से ऑपरेट होती है. दुनिया भर के एक्सपर्ट्स का मानना है कि बायोमैट्रिक से पहचान पत्र बनाने की कोई सटीकटेक्नोलॉजी नहीं है. दरअसल, यह पूरा प्रोजेक्ट विदेशी कंपनियां अपनी टेक्नॉलाजी को भारत में टेस्ट कर रहे हैं और हमारी महान सरकार ने पूरे देश की जनता को बलि का बकरा बना दिया है. अब इस सवाल का जवाब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ही दे सकते हैं कि सरकार ने राष्ट्रीय ख़जाने से हज़ारों करोड़ रुपये बिना बिल पास कराए क्यों ख़र्च किया. यह मामला गृह मंत्रालय का है, लेकिन जवाब प्रधानमंत्री को देना चाहिए, क्योंकि यूआईडी के सर्वेसर्वा नंदन नेलकानी मनमोहन सिंह के ख़ास मित्र हैं. यह कैसा प्रजातंत्र है और यह सरकार चलाने का कौन सा तरीक़ा है, जहां किसी स्कीम का बिल संसद में लटका पड़ा हो, जिस बिल पर संसदीय समिति की ऐसी राय हो और जिस बिल पर संसद में भीषण विरोध हो रहा हो, लेकिन सरकार इन सब को नज़रअंदाज़ कर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च कर देती है. सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस प्रोजेक्ट पर कितना पैसा ख़र्च होगा, यह बात अब तक गुप्त रखा गया है. ऐसी स्थिति में हमें यह मान लेना चाहिए कि हर साल इस प्रोजेक्ट में हज़ारों करोड़ रुपये बर्बाद कर दिए जाएंगे, वह भी बिना किसी क़ानून के. यहां सवाल यह भी उठता है कि अगर संसद में यूआईडीएआई बिल पास न हुआ और इस योजना को बंद करना पड़ा, तब क्या होगा. सुप्रीम कोर्ट ने अगर इस मामले में प्रतिकूल फैसला सुना दिया, तो क्या होगा. योजना तो बंद हो ही जाएगी, लेकिन ग़रीब जनता का हज़ारों करोड़ रुपया, जो कि पानी की तरह बहा दिया गया है, उसे कौन लौटाएगा. क्या नंदन नेलकानी उसे वापस करेंगे या फिर उन्हें नियुक्त करने वाले मनमोहन सिंह इस ज़िम्मेदारी को उठाएंगे. यूआईडी कार्ड है या नंबर, इससे देश की जनता को कोई फ़़र्क नहीं पड़ता है, लेकिन सरकार को अगर लोगों का विश्वास जीतना है, तो इस पूरे प्रोजेक्ट की स्वतंत्र जांच कराकर सरकार को श्वेत पत्र पेश करना चाहिए, ताकि देश की जनता आधार कार्ड की हक़ीक़त जान सके.यह कार्ड ख़तरनाक है : पार्ट-1चौथी दुनिया ने अगस्त 2011 में ही बताया था कि कैसे यह यूआईडी कार्ड हमारे देश की सुरक्षा के लिए ख़तरनाक है. दरअसल, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) ने इसके लिए तीन कंपनियों को चुना- एसेंचर, महिंद्रा सत्यम-मोर्फो और एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन. एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन का उदाहरण लेते हैं. इस कंपनी के टॉप मैनेजमेंट में ऐसे लोग हैं, जिनका अमेरिकी खु़फिया एजेंसी सीआईए और दूसरे सैन्य संगठनों से रिश्ता रहा है. एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन अमेरिका की सबसे बड़ी डिफेंस कंपनियों में से है, जो 25 देशों में फेस डिटेक्शन, इलेक्ट्रॅानिक पासपोर्ट आदि जैसी चीजों को बेचती है. इस कंपनी के डायरेक्टरों के बारे में जानना ज़रूरी है. इसके सीईओ ने 2006 में कहा था कि उन्होंने सीआईए के जॉर्ज टेनेट को कंपनी बोर्ड में शामिल किया है. ग़ौरतलब है कि जॉर्ज टेनेट सीआईए के डायरेक्टर रह चुके हैं और उन्होंने ही इराक़ के ख़िलाफ़ झूठे सबूत इकट्ठा किए थे कि उसके पास महाविनाश के हथियार हैं. सवाल यह है कि सरकार इस तरह की कंपनियों को भारत के लोगों की सारी जानकारियां देकर क्या करना चाहती है? एक तो ये कंपनियां पैसा कमाएंगी, साथ ही पूरे तंत्र पर इनका क़ब्ज़ा भी होगा. इस कार्ड के बनने के बाद समस्त भारतवासियों की जानकारियों का क्या-क्या दुरुपयोग हो सकता है, यह सोचकर ही किसी के भी दिमाग़ की बत्ती गुल हो जाएगी.यह कार्ड ख़तरनाक है : पार्ट- 2नवंबर 2011 में भी चौथी दुनिया ने यूआईडी कार्ड से संबंधित एक कवर स्टोरी की थी और बताया था कि कैसे अगर यह कार्ड गलत हाथों में चला गया, तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. हमने बताया था कि अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में यूएस होलोकॉस्ट मेमोरियल म्यूजियम है. इस म्यूजियम में एक मशीन रखी है, जिसका नाम है होलेरिथ डी-11. इस मशीन को आईबीएम कंपनी ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले बनाया था. यह एक पहचान-पत्र की छंटाई करने वाली मशीन है, जिसका इस्तेमाल हिटलर ने 1933 में जनगणना करने में किया था. यही वह मशीन है, जिसके ज़रिए हिटलर ने यहूदियों की पहचान की थी. नाज़ियों को यहूदियों की लिस्ट आईबीएम कंपनी ने दी थी. यह कंपनी जर्मनी में जनगणना करने के काम में थी, जिसने न स़िर्फ जातिगत जनगणना और यहूदियों की गणना की, बल्कि उनकी पहचान भी कराई. आईबीएम और हिटलर के इस गठजोड़ ने इतिहास के सबसे खतरनाक जनसंहार को अंजाम दिया. भारत सरकार ने खास तौर पर जर्मनी और आम तौर पर यूरोप के अनुभवों को नज़रअंदाज़ करके इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी है, जबकि यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि निशानदेही के यही औजार बदले की भावना से किन्हीं खास धर्मों, जातियों, क्षेत्रों या आर्थिक रूप से असंतुष्ट तबकों के खिलाफ़ भी इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं. यह एक खतरनाक स्थिति है.