अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविध्यालय के लिए जमीन दान देने वाले, हाथरस के राजा महेंद्र प्रताप सिंह की जयंती मनाने की घोषणा से और कुछ हुआ हो या न हुआ लेकिन यह तो अवश्य हुआ है कि - सेकुलरों को कुछ तो सबक अवश्य मिलेगा कि - शांतिदूतों के लिए आप चाहे कुछ भी कर दीजिये लेकिन ये लोग कभी भी आपका अहेसान नही मानेंगे.
बैसे भी कुछेक राजाओं को छोड़कर, तत्कालीन ज्यादातर राजाओं-महाराजाओं को मैं ज्यादा सम्मान योग्य नही मानता हूँ क्योंकि अधिकांश राजा अंग्रेजों के पिट्ठू थे और अंग्रेजों को खुश करने के लिए हिन्दुस्थानियों पर अत्याचार किया करते थे. इस विवाद को समझने से पहले राजा महेंद्र प्रताप सिंह के परिवार / खानदान को समझना आवश्यक है.
हाथरस के राजा गोविन्दसिंह ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों का साथ दिया था. क्रांतिकारियों के दमन के बाद अंग्रेजों ने उन्हें, राजा की पदवी के साथ 50 हजार रुपये नकद और कुछ गाँवों की जागीर दी. राजा गोविन्दसिंह की 1861 में निसंतान मृत्यु हो जाने के बाद, उनकी रानी साहबकुँवरि ने हरनारायण सिंह को गोद ले लिया.
राजा हरनारायणसिंह अंग्रेजों के भक्त थे. राजा हरनारायण सिंह के भी कोई पुत्र नहीं हुआ तो उन्होंने मुरसान के राजा घनश्याम सिंह के तीसरे पुत्र महेन्द्र प्रताप को गोद ले लिया. महेन्द्र प्रताप का जन्म 1 दिसम्बर 1886 को मुरासान में हुआ था. उनका विवाह जींद (हरियाणा) रियासत की राजकुमारी के साथ बहुत ही धूमधाम से हुआ था.
बैभवपूर्ण जीवन जीते हुए भी वह अन्य तत्कालीन राजाओं की तरह नही थे. प्रारम्भ में अंग्रेजों से उनका कोई ख़ास बिरोध नहीं था . प्रथम विश्वयुद्ध के समय जर्मन के पक्ष में लेख लिखने के कारण उन पर 500 रुपये का दण्ड किया गया, जिसे उन्होंने भर तो दिया लेकिन देश को आजाद कराने की उनकी इच्छा प्रबलतम हो गई.
उसके बाद उन्होंने आर्यसमाजी स्वामी श्रद्धानंद जी के ज्येष्ठ पुत्र हरिचंद्र को साथ लेकर विदेश यात्राएं कीं और जर्मनी के शसक कैसर से भेंट कर हर संभव सहाय देने का वचन दिया. वहाँ से वह अफगानिस्तान गये और अफगान के बादशाह से मुलाकात की. 1 दिसम्बर 1915 में काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार की घोषणा की .
अफगानिस्तान ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया. उसके बाद वे रूस गये और लेनिन से मिले परंतु लेनिन ने कोई सहायता नहीं की. 1920 से 1946 तक वे विदेशों में भ्रमण करते रहे. उनके बाप-दादा भले ही अंग्रेजों के भक्त रहे मगर उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. वे आजाद भारत में सांसद भी रहे.
बीजेपी ने उनका जन्मदिन मनाने का फैसला करके अच्छा काम किया है लेकिन AMU कैम्पस में जबरन जन्मदिन मनाने की कोशिश करना उचित नही है. कहीं भी धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाकर यह बताया जा सकता था कि हम तो उनका जन्मदिवस मना रहे हैं जबकि उनकी दी हुई जमीन पर विश्व विद्यालय चलाने वाले उनको भूल गए हैं.
"राजा महेंद्र प्रताप सिंह" पूरी तरह से धर्म-निरपेक्ष थे और हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे. उन्होंने अगर "अलीगढ़" में "मुस्लिम विश्व विद्यालय" को जमीन दान में दी तो साथ ही "वृन्दावन" में 80 एकड़ का एक बाग़ "आर्य प्रतिनिधि सभा" को दान में दे दिया था, जिसमें "आर्य समाज गुरुकुल" और "राष्ट्रीय विश्वविद्यालय" है.
वे भारतीयों को भारत में उच्च शिक्षा देने के पक्षधर थे और इसीलिए शैक्षिक संस्थाओं को मदद करते थे. उनके धर्म निरपेक्ष व्यक्तित्व के बाबजूद , अक्सर कांग्रेसी नेता उन पर RSS का एजेंट होने का आरोप लगाते रहते थे और इसी कारण उनको वो सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे. उनके आने वाले जन्मदिवस (1-दिसंबर) पर कोटि कोटि नमन
---- नवीन वर्मा की वाल पोस्ट से साभार
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