मुंबई दंगो को लेकर उर्दू अखबारों का घोर दोगलापन उजागर
[साभार विस्फोट डॉट कॉम ]
उर्दू अख़बारों में मुंबई में भड़की हिंसा का मामला दूसरे दिन भी छाया रहा. जागरण ग्रुप का ‘इंकलाब’ अख़बार के संपादक (नॉर्थ) शकील शम्सी लिखते हैं कि “आज दुनिया भर में पुलिस एहतजाजी मुज़ाहरीन को मुंतशिर करने के लिए वाटरकैन और रबर बुलेट का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन हमारे मुल्क में अभी तक इस बात की ज़रूरत नहीं समझी गई है कि भीड़ को मुंतशिर करने के लिए रबर की गोलियां चलाई जाएं. बहुत से लोगों का कहना है कि पुलिस के ज़रिए गोली चलाए जाने से हालात ज़्यादा ख़राब हुए. सच क्या है, ये तो जांच के बाद ही सामने आएगा, लेकिन अफ़सोस कि दो नौजवानों की जान चली गई.”
‘हिन्दुस्तान एक्सप्रेस’ अपने संपादकीय में लिखता है कि “हम ये ज़रूर कह सकते हैं मुम्बई की पुलिस फायरिंग का ये वाक़्या जम्हूरियत के माथे पर एक कलंक का टीका ही है, जिसे मिटाना लाज़िमी है. ये इस वज़ह से ज़रूरी है, क्योंकि अगर हुकूमतें खामोश रहीं तो पुलिस का हौसला और बढ़ेगा और ये तास्सूर भी आम होगा कि सरकारी मिशनरी अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म ढ़ा रही है, जिस पर हुकूमत खामोश है!”
‘हमारा समाज’ अपने संपादकीय में लिखता है कि “सच्चाई ये है कि हिन्दुस्तान जैसे अज़ीम और सेकुलर मुल्क में हर रोज़ कहीं न कहीं अल्पसंख्यकों की जान व माल की हिफाज़त में कोताही हो रही है. लिहाज़ा हुकूमत को चाहिए कि इंसाफ करे.क्योंकि जिस मुल्क के अल्पसंख्यक इस मुल्क से खुश हो, जिस मुल्क में अल्पसंख्यकों को इंसाफ मिले, वो मुल्क दुनिया में अज़ीम कहलाते हैं. लेकिन हिन्दुस्तान में जम्हुरियत पर कब कौन सा लीडर डाका डाल दे, ये कहना बड़ा मुश्किल है. क्योंकि गुज़िश्ता रोज़ का का वाक़्या है कि एहतजाज करने वालों पर पुलिस ने बग़ैर वार्निंग के गोली चला दी, हालांकि वार्निंग देना बहुत ज़रूरी था, मगर ये मुसलमान थे जिनको वार्निंग कभी नहीं दी जाती, बल्कि इनका इस्तकबाल डायरेक्ट पुलिस की गोली करती है.”
‘राष्ट्रीय सहारा उर्दू’ अपने संपादकीय में लिखता है कि “मुसलमानों में इसलिए भी रंज व ग़म की लहर दौड़ी हुई है कि वज़ीरे-आज़म डॉ. मनमोहन सिंह अमेरिका के सिक्ख गुरूद्वारे में हमारे 6 सिक्ख भाई-बहनों के क़त्ल पर तो फोन उठाकर सदर बराक ओबामा से बात कर सकते हैं, लेकिन म्यांमार में मुसलमानों के कत्ले-आम पर वहां के सदर या वज़ीरे-आज़म सरज़िन्श नहीं कर सकते.”
‘सहाफ़त’ के संपादक हसन शुज़ा अपने विशेष संपादकीय में लिखते हैं कि “आज भी कई टीवी चैनल ये बता रहे हैं कि 6 हज़ार बांग्लादेशी रोज़ मुल्क में दाख़िल हो रहे हैं. अगर ऐसा है तो इन लोगों को सरज़मीन-ए-हिन्द में दाख़िल होने से क्यों नहीं रोका जा रहा? सरहदों पर ज़बरदस्त पहरा है. सिर्फ एक दरियाई रास्ता है, वहां भी काफी फौज पुलिस तैनात रहती है. फिर इतना बांग्लादेशी आने की ख़बरें क्यों आ रही हैं? आसाम में क़त्ल, फ़सादात और इंसानी जान व माल के ज़यां से कहीं बेहतर ये होगा कि हस्बे क़ानून जो लोग बांग्लादेशी साबित हो जाएं, उन्हें वापस किया जाए. और लोगों को आने से रोका जाए, लेकिन जो ग़ैर-आसामी, ग़ैर-बोडो हिन्दू मुसलमान बंगाली हिन्दुस्तानी शहरी हैं, उनकी ज़िन्दगी दुश्वार न बनाई जाए. सरहदों पर सख्ती बरतना कोई बहुत बड़ा काम नहीं है, लेकिन ग़ैर-मुल्की के नाम पर आसाम में मुसलमानों को हरासां करना ग़लत है.”
मंगलवार, 14 अगस्त 2012
उर्दू अखबारों का दोगलापन
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